कुण्डलिनी शक्ति : हमारे अंदर स्थित अनंत ऊर्जा स्रोत
कुण्डलिनी मूलतः संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है कुण्डल अथवा घुमावदार। यह एक ऐसी दिव्य शक्ति है जो इंसान के शरीर में उसके जन्म से पहले उसके शरीर में विद्यमान रहती है।
यह शक्ति मनुष्य के लिए अनंत ऊर्जा का स्रोत मानी गयी है। जिस प्रकार एक साँप कुण्डल मार के बैठता है, ठीक उसी तरह यह शक्ति भी साढ़े तीन कुण्डल में हमारी रीड़ की हड्डी के नीचे स्थित त्रिकोणाकार अस्थि में विराजित होती है। इसके इसी स्वरुप के कारण इसे सर्पाकार शक्ति या फिर सर्पेंटाइन एनर्जी भी कहा जाता है।
हमारे शरीर के अंदर कुण्डलिनी शक्ति का प्रवेश
जब बच्चा अपनी मां के गर्भ में विकसित हो रहा होता है, ठीक उसी समय (जब विज्ञान के अनुसार बच्चे की लम्बाई भी साढ़े तीन इंच ही होती है। ) तब परमात्मा की यह अदृश्य शक्ति हमारे सर के तालू भाग (सर के शिखर पर मुलायम भाग / fontanelle bone area) से प्रविष्ट होकर, रीड़ की हड्डी से नीचे उतरते हुए, त्रिकोणाकार अस्थि में पहुँच कर सुप्तावस्था/ Dormant State में विराजित हो जाती है।
कुण्डलिनी का पौराणिक उल्लेख
अनादि काल से भारत वर्ष में कुण्डलिनी शक्ति और उसके जागरण की बात कही गई है। 14 सौ वर्ष पूर्व संस्कृत भाषा में श्री मार्कंडेय जी ने कुण्डलिनी के विषय में लिखा है। 12वीं शताब्दी में श्री ज्ञानेश्वर जी ने मराठी भाषा में रचित अपनी पुस्तक ‘ज्ञानेश्वरी गीता’ के छठे अध्याय में कुण्डलिनी के विषय उल्लेख किया है। लेकिन इसके जागरण के विषय में किसी को सम्पूर्ण जानकारी नहीं थी इसलिए उस समय धर्म के ठेकेदारों ने इस छठे अध्याय का पठन निषिद्ध कर दिया था। छठी शताब्दी में श्री आदि शंकराचार्य ने जनसाधारण के सम्मुख कुण्डलिनी शक्ति के विषय को रखा जिसे उस समय भी स्वीकार नहीं किया गया।
गुरु नानक, कबीर दास, रामदास स्वामी ने तो बहुत स्पष्ट रूप से कुण्डलिनी की बात की, पर इसकी जागृति जनसाधारण में न होने के कारण लोगों इसे गलत समझा। भारत में कुण्डलिनी पर सबसे ज्यादा शोध “नाथ पंथी’ समुदाय के लोगों ने किया, ‘नाथ’ अर्थात स्वामी , पंथ अर्थात मार्ग, – “स्वामित्व प्राप्ति का मार्ग “।
यह सच है की कुण्डलिनी के ज्ञान का उद्भव् हमारे देश – भारत वर्ष से है और यह पूर्णत भारतीय विज्ञान है, पर अन्य कई सभ्यताओं को भी इसका ज्ञान था। उदाहरण : बाइबल में कुण्डलिनी को “टंगस ऑफ़ फायर” और कुरान में इसे “बुराक” कहा गया है।
क्यों ज़रूरी है कुण्डलिनी जागृति ?
कुण्डलिनी इंसान के शरीर में परमात्मा से संपर्क स्थापित करने का एक मात्र रास्ता है। यह इस सृष्टि की रचयिता श्री आदिशक्ति का प्रतिबिंब है इसीलिए कुण्डलिनी शक्ति को हमारी अध्यात्मिक मां माना जाता है। क्यूंकि यह एक माँ की ही तरह प्रेम करती है और व्यक्ति के सभी अच्छे बुरे कर्मों, भूत – भविष्य तथा सभी गुण – अवगुण का लेखा जोखा इसमें किसी रिकॉर्ड की तरह इसमें अंकित रहता है। सिर्फ इतना ही नहीं, जागृत होने पर कुण्डलिनी व्यक्ति के हित में निर्णय लेने में भी सक्षम होती है।
कुण्डलिनी शक्ति की जागृति व ‘आत्म साक्षात्कार’ का क्या अर्थ है
सरल शब्दों में कुण्डलिनी जागृति से ही “आत्म साक्षात्कार” संभव है। ‘आत्म साक्षात्कार’ यानि जब हमारा चित्त हमारी आत्मा के साथ एकाकार हो जाता है। यही ध्यान की पहली सीढ़ी है। इससे पूर्व ध्यान करने की प्रक्रिया केवल ध्यान की एक अनाधिकार चेष्टा मात्र ही है जिसका भुगतान कई बार साधकों को भयावह स्थितियों में भी डाल देता है।
कुण्डलिनी जागृति का पहला लक्षण है
कुण्डलिनी जागृति से निर्विचर्ता में आते ही पहला लक्षण है, थॉटलेस अवेयरनेस। दूसरा लक्षण यह है, दोनों हाथों की हथेलियों, उंगलियों और सर के तालु भाग पर हल्की, शीतल ठंडी लहरियों का अनुभव। किसी- किसी को यह ठंडी शीतल लहरी रीड़ की हड्डी में भी अनुभव होती है यह अनुभव बहुत ही पवन और दिव्य होता है।
इन्हीं शीतल लहरियों को चैतन्य कहा गया है। बाइबिल में इसे कूल ब्रीज़ ऑफ़ द होली घोस्ट कहकर वर्णित किया गया है। कुरान में इसके लिए कहा गया है कि क़यामा या लास्ट जजमेंट या अंतिम निर्णय के दिन आपकी जुबान पर ताले लग जाएंगे और आपका हाथ आपके खिलाफ शहादत देगा इस बात का सरल मतलब यह है कि हाथ पर शीतल लहरियां हमारे मन ,हृदय ,कर्मों का आँकलन करेगी और अपनी शीतलता के प्रभाव से हमारी स्वयं की स्थिति बताएगी।
क्या कभी किसी की कुण्डलिनी जागृत हुई है ?
प्राचीन काल से गुरु अपने किसी एक शिष्य को उसकी वरीयता के आधार पर चुनकर कुण्डलिनी जागृति करते थे क्योंकि यह सबसे उच्चतम ज्ञान था इसलिए कुण्डलिनी जागरण के लिए शिष्य को भी कई कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता था समाज में कई वर्षों तक इस एक ‘एक गुरु- एक शिष्य’ की परंपरा में ही प्रदान किया जाता था। उदाहरण राजा जनक ने अपने शिष्य नचिकेता की ही कुण्डलिनी जागृति की। जनसाधारण को यह विद्या प्राप्त नहीं थी।
एक बार शिवाजी महाराज ने अपने गुरु श्री रामदास स्वामी से पूछा की कुण्डलिनी जागृति में कितना समय लगता है ,उत्तर में गुरु ने कहा ‘ तत्क्षण’ पर इसे देने वाला होना चाहिए और पाने वाला भी होना चाहिए, अर्थात गुरु इतना सबल हो कि अपने शिष्य की कुण्डलिनी जागृत कर सके और शिष्य भी इतना सरल व सक्षम हो कि उसकी कुण्डलिनी जागृति हो सके।
इसके अलावा कुछ संत तो जन्म से ही आत्मसाक्षात्कारी होते हैं, जिन्होंने समाज को अपने ज्ञान से सही दिशा प्रदान की जैसे आदि गुरु शंकराचार्य तुकाराम संत कबीर दास आदि।
कुण्डलिनी शक्ति का कार्य
कुण्डलिनी शक्ति एक माँ की ही तरह व्यक्ति के जीवन में पोषण, प्रेम, शारीरिक मानसिक व आध्यात्मिक संतुलन प्रदान करती है लेकिन इसका सबसे प्रमुख कार्य हैं, सर्वशक्तिमान परमात्मा से एकाकार होकर मोक्ष प्रदान करना। कुण्डलिनी का जागरण अपने आप में अति पावन और विशिष्ठ घटना/ प्रक्रिया है ,जिसे आत्मसाक्षत्कार कहते हैं, इसी प्रक्रिया से मनुष्य को आत्मसाक्षात्कार अथवा आध्यात्मिक पुनर्जन्म प्राप्त होता है। इसे द्विज़ होना भी कहते हैं।
कुण्डलिनी जागरण के लाभ
कुण्डलिनी जागरण के कई लाभ हैं, जिनमें शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्पष्टता, भावनात्मक संतुलन और आध्यात्मिक विकास शामिल हैं। जब कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है, तो शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को बढ़ाती है, जिससे हमारे अंदर निरंतर चल रहे विचारों की श्रृंखला थम जाती है और हम शांत हो जाते हैं जिसके बाद हमारा चित्त स्थिर हो जाता है, फिर चाहे वह पठन-पाठन अध्ययन का कार्य हो या फिर किसी भी प्रकार का जटिल कार्य, सभी को बड़े आसानी से, बगैर कोई स्ट्रेस लिए, शान्ति से किया जा सकता है। जिससे जीवन में शक्ति और आनंद का प्रादुर्भाव बना रहता है।
जिससे जीवन में शक्ति और आनंद का प्रादुर्भाव बना रहता है ।
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