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विश्व में लगभग सभी धर्मों में देवी-देवताओं को पुष्प चढ़ाने का विधान है। भक्त अपने इष्ट को प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह के फूलों से उनका श्रृंगार करते हैं।
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पुष्प अर्पण को लेकर कई मान्यताएं हैं। भक्तों का मानना है कि फूल, पूजा में पंच-तत्वों का प्रतीक हैं। उनसे आने वाली सुगंध, सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है, जिससे पूजा के लिए उपयुक्त वातावरण बन जाता है।
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किस देवी-देवता को कौन से फूल चढ़ाने चाहिए, शास्त्रों में भी इसका विस्तार से उल्लेख है।
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किसी भी सभ्य समाज में जब भी किसी से कुछ लिया जाता है, तो बदले में यथा-शक्ति, प्रेम अथवा धन्यवाद-स्वरुप, कुछ न कुछ ज़रूर दिया जाता है।
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कुछ लोगों का मानना है कि पुष्प-अर्पण व्यर्थ की रीत है। फूल पेड़ों पर ही अच्छे लगते हैं, अत: उन्हें तोड़ना नहीं चाहिए।
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ईश्वर जो सर्वशक्तिमान हैं, जिन्होंने पूरी सृष्टि बनाई है, उनसे कुछ मांगने पर, बदले में क्या ही दिया जा सकता है?
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ईश्वर को पुष्प अर्पित करना, मनुष्य में उपकार-बुद्धि को सदृढ़ करता है। यदि कोई व्यक्ति, सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति ही कृतज्ञता प्रकट नहीं करता तो एक निर्बल द्वारा किये गए उपकार का उसके लिए क्या महत्व होगा?
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"धन्यवाद स्वरुप" भगवान को सोना-चांदी चढ़ाने की होड़ में समाज का एक भी वर्ग उपेक्षित न महसूस करे इसलिए ऋषियों ने संसार की सबसे विशुद्ध और पवित्र वस्तु, जो अमीर- ग़रीब सभी के लिए निःशुल्क उपलब्ध है, का चयन किया।
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कुण्डलिनी की जागृति के बाद हमारे शरीर में मौजूद चक्र मुख्यता मूलाधार चक्र और स्वादिष्ठान चक्र क्रमशः सुगन्धित व सुन्दर फूल, ईश्वर को अर्पण करने से क्रियान्वित होते हैं।
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पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति | तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: || 26||
स्वयं श्रीकृष्ण ने भी गीता में वचन दिया है कि "यदि कोई अनन्य-भक्ति से पुष्प, फल या पत्ता भी मुझे देता है, तो मैं उसे स्वीकार करूंगा।"
भगवत गीता (अध्याय 9 श्लोक 26)
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वास्तव में हम परमात्मा का धन्यवाद कर ही नहीं सकते, केवल कृतज्ञ हो सकते हैं। पुष्प-अर्पण, ईश्वर से पुष्पों की भांति शुद्ध और पवित्र होने की प्रार्थना है, जिससे उनका आशीर्वाद व सानिध्य प्राप्त सके।