देश की क्रांति गाथा में ऐसा ही नाम है कन्हाईलाल दत्त का जिन्होंने गद्दार साथी को उतारा था मौत के घाट, पढ़े पूरा विवरण

यूं तो भारत की स्वतंत्रता के लिए अगणित क्रांतिकारियों ने प्राण दिए, लेकिन ऐसे बिरले ही रहे जिन्होंने देश से गद्दारी करने वाले अपने ही साथी का वध किया। देश की क्रांति गाथा में ऐसा ही नाम है कन्हाईलाल दत्त का। भारत के स्वाधीनता संग्राम पर इस एक घटना का इतना असर पड़ा कि जो क्रांतिकारी फांसी से बचे, उन्होंने बाद में वर्षों तक क्रांति की अलख को जगाए रखा।

कहानी वर्ष 1899 से शुरू होती है। तब लार्ड कर्जन नया वायसराय और गवर्नर जनरल बनकर भारत आया था। कर्जन ने बंगाल के विभाजन का षड्यंत्र रचा किंतु 16 अक्टूबर, 1905 को जैसे ही कर्जन की ‘बंग-भंग’ कुत्सित योजना सार्वजनिक हुई, बंगाल के साथ पूरे देश में आक्रोश की लहर दौड़ गई। बंग-भंग के विरुद्ध जनता का तीव्र आंदोलन प्रारंभ हुआ। उसे कुचलने के लिए सरकार ने भी अत्याचारों की सीमा लांघ दी। इसी दौरान बंगाल के एक नवयुवक क्रांतिकारी हेमचंद्र दास अपनी पैतृक संपत्ति का एक अंश बेचकर फ्रांस गए। वहां उन्होंने श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा वीर विनायक दामोदर सावरकर के सहयोग से बम निर्माण की कला सीखी और श्री अरविंद घोष तथा उनके क्रांतिदल के साथ कलकत्ता (अब कोलकाता) के मुरारीपुकुर बगीचे में बम निर्माण का कारखाना खोला। इस कारखाने में निर्मित बम से 30 अप्रैल, 1908 को महान क्रांतिवीर खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी ने कलकत्ता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड पर बम विस्फोट कर देश में तहलका मचाया था। तब पुलिस ने जगह-जगह छापेमारी की और कुछ दिन बाद मुरारीपुकुर बम निर्माण कारखाने पर भी छापा मारकर भारी मात्रा में क्रांतिकारियों के शस्त्र जब्त कर लिए। इसके बाद श्री अरविंद घोष, उनके भाई बारींद्र कुमार घोष, कन्हाईलाल दत्त, सत्येंद्रनाथ बोस सहित 34 क्रांतिकारियों को बंदी बना लिया गया। सभी पर ‘अलीपुर बम केस’ नाम से अभियोग चला। पकड़े गए क्रांतिकारियों में कन्हाईलाल दत्त भी थे, जिन्हें कारावास में अमानवीय यातनाएं दी जा रही थीं ताकि वह अपराध स्वीकार लें किंतु किसी भी क्रांतिकारी ने मुंह नहीं खोला, लेकिन अंग्रेज सरकार के लालच और डर से एक कमजोर क्रांतिकारी नरेंद्र गोस्वामी ने गद्दारी करते हुए सरकारी गवाह बनना स्वीकार कर लिया। वह ऐसा बयान देने को तैयार हो गया जो क्रांतिकारियों को फांसी दिलवाने के लिए पर्याप्त था।

जेल के भीतर खेला नाटक

क्रांतिवीर कन्हाईलाल दत्त और सत्येंद्रनाथ बोस को जैसे ही नरेंद्र गोस्वामी की गद्दारी की जानकारी मिली, दोनों ने निश्चय किया कि गद्दार को मृत्युदंड देना आवश्यक है, वह भी न्यायालय में उसके द्वारा क्रांतिकारियों के खिलाफ बयान देने से पहले। अलीपुर जेल में अंग्रेजों ने गोस्वामी को सुरक्षा की दृष्टि से सामान्य वार्ड से हटाकर अस्पताल के पास बने सुरक्षित यूरोपियन वार्ड में रखा था। इस बीच कन्हाईलाल ने किसी प्रकार एक पिस्तौल प्राप्त कर ली। इस पिस्तौल को बारींद्र कुमार ने जेल से पलायन करने की योजना के तहत मंगवाया था जो अब कन्हाईलाल के पास थी। कन्हाई ने योजना के मुताबिक पेट दर्द की शिकायत की और जेल के डाक्टर के पास पहुंचे। डाक्टर ने उन्हें इलाज के लिए यूरोपियन वार्ड के पास बने अस्पताल में भर्ती करवा दिया। बीमारी के बहाने सत्येंद्रनाथ भी मरीज बनकर अस्पताल में भर्ती हो गए। यहां कन्हाईलाल और सत्येंद्रनाथ ने एक नाटक खेला और क्रांतिकारियों के खिलाफ सरकारी गवाह बनने की इच्छा व्यक्त की। यह खबर नरेंद्र गोस्वामी तक पहुंची और वह दत्त व बोस के जाल में फंस गया। उसे इन दोनों पर विश्वास हो गया और वह इनसे बेधड़क मिलने-जुलने लगा।

स्वेच्छा से स्वीकारा वध

31 अगस्त, 1908 को सुबह सात बजे सत्येंद्रनाथ अस्पताल की पहली मंजिल के बरामदे में नरेंद्र गोस्वामी की प्रतीक्षा कर रहे थे। हिगिन्स नामक अंग्रेज अधिकारी के साथ नरेंद्र गोस्वामी भी बरामदे में पहुंचा। उसी समय कन्हाईलाल दत्त भी वहां पहुंच गए। कुछ देर बाद हिगिन्स वहां से चला गया, तब माहौल को भांपने के बाद दत्त ने गद्दार नरेंद्र गोस्वामी पर गोली दाग दी। नरेंद्र जख्मी हो पाया और बचाओ-बचाओ चिल्लाते हुए भागने लगा। उसकी आवाज सुन अंग्रेज अफसर हिगिन्स सहायता के लिए दौड़ा। उसने नरेंद्र को एक कक्ष में धकेला और कन्हाईलाल तथा सत्येंद्रनाथ का रास्ता रोकने का प्रयास किया। कन्हाईलाल की पिस्तौल छीनने के प्रयास में हिगिन्स भी घायल हो गया। मौका देख नरेंद्र गोस्वामी नीचे की ओर भागा तो कन्हाईलाल और सत्येंद्रनाथ ने भी उसका पीछा किया। तभी एक अन्य अंग्रेज अधिकारी लिंटन ने कन्हाईलाल को पकड़ लिया। कन्हाई ने पिस्तौल की नाल उसके सिर पर मारी और स्वयं को छुड़वाकर नरेंद्र का पीछा करना जारी रखा। अंतत: क्रांतिवीर कन्हाईलाल दत्त ने अपनी पिस्तौल में बची हुई आखिरी गोली से गद्दार नरेंद्र गोस्वामी का वध कर दिया। इसके बाद कन्हाईलाल और सत्येंद्रनाथ भाग सकते थे, लेकिन वे स्वेच्छा से गिरफ्तार हो गए। दोनों क्रांतिवीरों पर मुकदमा चला। कन्हाई ने वकील लेने से मना करते हुए गर्व के साथ नरेंद्र का वध करना स्वीकारा।

जीत लिया मृत्यु को

कन्हाईलाल को फांसी की सजा सुनाई गई तो उन्हें मानों वांछित पुरस्कार मिल गया। उन्हें देश के लिए फांसी पर चढ़ने का इतना गर्व था कि दंड सुनने वाले दिन से लेकर फांसी के दिन के बीच उनका वजन 16 पौंड बढ़ चुका था। कन्हाईलाल ने मृत्यु को जीत लिया था। जीवन की अंतिम रात कन्हाईलाल इतनी बेफिक्री से सोए कि सुबह वह किसी अन्य व्यक्ति के जगाए जाने पर उठे। 30 अगस्त, 1888 को हुगली में जन्मे कन्हाईलाल दत्त को महज 20 वर्ष की उम्र में 10 नवंबर, 1908 को अलीपुर की केंद्रीय जेल में फांसी दे दी गई। लोगों ने कन्हाई का अंतिम संस्कार सुगंधित चंदन की लकड़ियों की चिता सजाकर किया। हजारों लोग उमड़े और चिता की भस्म ठंडी होने पर चुटकी-चुटकी घर ले गए और बाद में उसे ताबीज में डालकर स्वयं पहना और बच्चों को भी पहनाया।

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